कुरुद, 06 सितमगर 2020, 13.05 hrs : (मुकेश कश्यप का आलेख) जिस घर मे बड़े-बुजुर्गों का सम्मान होता है, वहां देवता भी वास करते है । घर तभी स्वर्ग से सुंदर बनता है, जहां हमारे सभी वृद्धजनों को पूजा जाता है । गणेश जी के विसर्जन के पश्चात प्रतिवर्ष 15 दिनों तक सभी घरों में स्वर्गवासी हो चुके लोगों को उनके वंशजों द्वारा तिथि अनुसार पूजा जाता है ।
अलग-अलग दिन तिथि अनुसार गुजर चुके लोगों का श्राद्ध करते हुए नमन किया जाता है । पितर पक्ष के शुरू होते ही सुबह से तालाबों में उनका तर्पण किया जाता है, वहीं घर में जल-धूप और फूल-माला के साथ पूजन वंदन करते हुए उनका विशेष श्राद्ध किया जाता है ।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ =पिता) के नाम से विख्यात है । इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं । पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं । श्रद्धया इदं श्राद्धम् (जो श्रद्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है) । भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है ।
हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है । इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं । जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है । भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं, जिसमें हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं ।
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है, उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है । पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है । ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है । 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं । इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है ।
वैसे तो पितर पर्व से जुड़ी बहुत सारी मान्यताएं और कथाएं है, पर इस महीने में पूर्वजो को दिल से ही उनका नाम लेना उनके प्रति आस्था रखना ही असली श्रद्धा होगी । साथ ही नई पीढ़ी को पित्ररों के महत्व के बारे में बताकर ही हम संयुक्त परिवार और खुशहाल जिंदगी की असली परिभाषा को साकार करते हुए उन्हें जींवन की वास्तविक संस्कृति की सीख और संस्कार का मूल्य सीखा सकते है ।