ऐसा दहशहरा, महा उत्सव को मिल रही अंतर्राष्ट्रीय पहचान । रियासत और जनजातीय परंपरा का अनुठा संगम…
जशपुरनगर । विश्वबन्धु शर्मा और शैली मिश्रा की खास रिपोर्ट।
जशपुर दशहरा को पूरी दुनिया में विशिष्ट पहचान मिल रही है । ऐसा दशहरा कहीं भी देखने को नहीं मिलता है । कालांतर यहां के दशहरा को दुनिया के सांस्कृतिक मंच पर पहचान दिलाने कोई ठोस पहल नहीं की गई, लेकिन जिसने भी देखा उसका यही कहना होता है कि ऐसा दशहरा दुनिया में कहीं नहीं देखा ।
दशहरा उत्सव जशपुर रियासत के साथ जनजातीय पंरपरा का अनूठा संगम है । अपने समृद्व परंपरा और विशेष पूजा पद्वती से यहां के दशहरा महोत्सव को अब राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान मिल रही है । जिले वासियों के लिए जशपुर दशहरा एक महा उत्सव है, जिसे राज परिवार के पिछले 27 पीढ़ी से उसी उत्साह के साथ मनाया जाता है । यह जिले का ऐसा उत्सव है जिसमें साल में एक बार एक स्थान पर हजारों की संख्या में लोग एकत्रित होकर इस त्योहार को पूरे उत्साह के साथ मनाते हैं । दशहरा महोत्सव का शुभारंभ यहां के सबसे पवित्र स्थल माने जाने वाले पक्की डेयोढ़ी से प्रारंभ होता है जहां मान्यता अनुसार जिले की सत्ता को संचालित करने वाले देव स्थल बालाजी मंदिर और काली मंदिर से अस्त्र-शस्त्रों को लाकर पूजा की जाती है ।
एक झांकी के रूप में राजपरिवार के सदस्य और जिले के पुरोहित यहां विशेष पूजा अर्चना करते हैं । राजपुरोहित आचार्य विनोद मिश्रा के अनुसार शक्ति की उपासना इस पूजा में होती है, जहाँ मां काली को काले रंग के बकरे की बलि चढ़ाई जाती है । पक्की डाड़ी से पवित्र जल बाजे गाजे के साथ देवी मंदिर मे लाया जाता है, जहां कलश स्थापना कर अखंड दीप प्रज्वलित किया जाता है । इसी के साथ नियमित रूप से 21 आचार्यों के मार्ग दर्शन में राज परिवार के सदस्य सहित नगर व ग्रामों से आए श्रद्धालु मां दुर्गा की उपासना वैदिक, राजसी और तांत्रिक विधि से करते हैं, जिसमें पूरे नवरात्र तक हजारों की संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं । नवरात्र की पूजा यहां के आठ सौ साल पहले स्थापित काली मंदिर में होती है, जहां 21 आचार्य हर दिन विश्व कल्याण को लिए अनुष्ठान करते हैं । इस मंदिर की स्थापना राज परिवार ने की थी, जिसमें मां काली की प्रतिमा का प्राण प्रतिष्ठा आचार्य खगेश्वर मिश्रा के द्वारा 8 सौ साल पहले की गई थी । यहां हर एक त्योहार में नगरवासियों और जनजातियों में पूजा पद्धति में कुछ विभिन्नतांए हैं, लेकिन दशहरा महोत्सव में बैगा, पुजारी, आचार्य सभी एक पंरपरा का निर्वहन करते हैं । किसी की भी अनुपस्थिति होती है तो पूरा उत्सव अधूरा होता है। दशहरा महोत्सव के माध्यम से जिलेवासी अपनी अमूल्य सांस्कृतिक परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी स्थांतरित कर रहे हैं।
वनदुर्गा को दिया जाता है आमंत्रण
एक ओर जहां नियमित रूप से हवन, पूजन में श्रद्धालु लीन होते हैं, वहीं षष्ठी के दिन वनदुर्गा को दशहरा के अवसर पर इस विशेष अनुष्ठान में शामिल करने के लिए विशेष आमंत्रण दिया जाता है । आमंत्रण के लिए षष्ठी के दिन शाम में विशेष झांकी निकलती है जो देवी मंदिर से लगभग दो किलोमीटर पर स्थिति ग्राम जुरगुम जाती है । वनदुर्गा को मां काली की सेना के रूप में भी समझा जाता है, जिसमें उन प्रेत आत्माओं को भी आमंत्रण दिया जाता है, जिन्हें सतकर्मो लिए मां काली ने अपने नियंत्रण में लिया था । षष्ठी के दिन आमंत्रण देने के बाद वन दुर्गा को सप्तमी के दिन लाने भी आचार्य झांकी के साथ जाते हैं । यहां से सप्तमी के दिन वनदुर्गा के प्रतीक के रूप में बेल के फल को लाया जाता है और उसे देवी मंदिर में स्थापित कर पूजा की जाती है । अष्टमी और नवमी के संधी समय में रात के बारह बजे इस दिन मेष(भेड़) के बली की पंरपरा रही है । बलि मृरधाओं के द्वारा दी जाती रही है। रियासत के समय से ही यह परंपरा विकसित हुई थी । पूर्व राजा के द्वारा बलि चढ़ाने के लिए एक परिवार को नियत किया गया था, जिसे मृरधा कहा जाता है । दो दशक पूर्व से यहां भैंस की बलि चढ़ाने की परंपरा बंद हो गई । आचार्य बताते हैं कि पहले यहां दशहरा महोत्सव में सात भैंसो की बलि चढ़ाने की पंरपरा थी ।
भगवान बालाजी के साथ निकलती है शोभा यात्रा ।
दशहरा महोत्सव तब अपने उत्कर्ष पर होता है जब विजय दशमी के दिन यहां विशाल शोभा यात्रा निकाली जाती है । दशहरा के दिन हजारों की संख्या में श्रद्वालू जिले भर से यहां के बालाजी मंदिर में एकत्रित होते हैं और भगवान बालाजी की विशेष पूजा अर्चना के बाद उन्हें लकड़ी से बने विशेष रथ में स्थापित किया जाता है । एक रथ में जहां भगवान होते हैें, वहीं दूसरे रथ में पुरोहित व राज परिवार के सदस्य होते हैं । शोभा यात्रा यहां के रणजीता स्टेडियम में पहुंचती है । इस स्थान को पहले रैनी डांड कहा जाता था । रणजीता मैदान में नगर के विभिन्न स्थलों से निकली मां दुर्गा की शोभा यात्रा भी पहुंचती है । यहां कृत्रिम लंका का निर्माण किया जाता है, जिसमें भव्य रावण सहित कुंभकर्ण, मेघनाद व अहिरावण के पुतले होते हैं । पहले हनुमान के द्वारा कृत्रिम लंका में आग लगाया जाता है, फिर रामायण के क्रम में रावण का भी अंत होता है । अब यहां आतिशबाजी की परंपरा भी प्रारंभ हो गई है जिसका नजारा आकाश में घंटो देखने को मिलता है । रावण दहन के दिन यहां अपराजिता पूजा का भी विशेष महत्व है, जिसे आचार्य व राजपरिवार के सदस्य करते हैं । आम लोगों की भी इसमें भागीदारी होती है। अपराजिता पूजा के पीछे मान्यता है कि रावण वध के पूर्व भगवान श्री राम ने अपराजिता पूजा की थी । दशहरा के दिन अंतिम कार्यक्रम के रूप में रणजीता मैदान में भगवान के रथ से नीलकंठ पक्षी के उड़ाने की पंरपरा है । यह विशेष बैगा के द्वारा यहां के बालाजी मंदिर में लाया जाता है । आचार्य विनोद मिश्रा ने बताया कि दशहरा में नीलकठ पक्षी को देखना शुभ माना जाता है । इसके पीछे मान्यता है कि रावण वध के समय रावण ने हनुमान को उनके वास्तवित रूप में पहचान लिया था और हनुमान ने शिव के नीलकंठ रूप में दर्शन दिए थे । इसके बाद ही रावण को मुक्ति मिली थी । माना जाता है कि यदि नीलकंठ पूर्व और उत्तर की ओर उड़ता है तो पूरे जिले के लिए यह वर्ष शुभ होता है, वहीं नीलकंठ यदि अन्य दिशाओं की ओर उड़ता है तो प्राकृतिक आपदाओं सहित अन्य परेशानियों का संकेत होता है । नीलकंठ को राजपरिवार के सदस्यों द्वारा उड़ाया जाता है ।
हर चीज परंपरा से जुड़ी
यहां के दशहरा में एक खास बात देखने को मिलती है, जिसमें हर कार्य उसी परिवार के द्वारा किया जाता है जो पिछले 27 पीढ़ी से इस कार्य को कर रहे हैं । दशहरा में वहीं वादक ढोल, नगाढ़े और शहनाई के साथ शामिल होते हैं जो परंपरागत रूप से इस उत्सव में वादन करते आ रहे हैं । जो बैगा नीलकंठ पकड़ कर लाता है, वह भी 27 पीढ़ियों से इस कार्य में जुड़ा है । बताया जाता है कि नीलकंठ पकड़ने के लिए वह जाल नहीं बिछाता है बल्कि आराधना करता है और स्वयं ही नीलकंठ पक्षी उसके पास आ जाते हैं । इसी प्रकार शस्त्र पकड़ने वाले सैनिक, बलि करने वाले मृरधा सभी पीढ़ी दर पीढ़ी अपने दायित्व निभा रहे हैं ।
नील कंठ की दिशा से देखते हैं भविष्य
दशहरा पर नीलकंठ उठाने की परंपरा है, जिसे दशहरा मैदान यानी रैनी डांड में रावण दहन के बाद उडाया जाता है । मान्यता है कि जिस दिशा में नील कंठ उड़ता है, उसपर ही यह बताया जाता है कि आने वाला वर्ष जशपुर और देश के लिए कैसा होगा । आचार्य बताते हैं कि यदि नीलकंठ पूर्व और उत्तर दिशा की ओर उड़ता है तो नगर में खुशहाली होती है और धन धान्य से भरा होता है ।