लोरिक चंदा – प्रेम चंद्राकर की फ़िल्म, मुंबई-मद्रास की कहानी और टोटके के तौर पर नींबू-मिर्च लटकाकर फिल्म का निर्माण करने वाले घटिया फिल्मकारों के मुंह पर एक तमाचा

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राजकुमार सोनी की समीक्षा : मुबई-मद्रास की कहानी और टोटके के तौर पर नींबू-मिर्च लटकाकर फिल्म का निर्माण करने वाले घटिया फिल्मकारों के मुंह पर एक तमाचा है- प्रेम चंद्राकर की लोरिक चंदा

निश्चित रुप से लोरिक-चंदा एक उम्दा फिल्म है, लेकिन छत्तीसगढ़ के नकल चोर निर्माता और निर्देशक ऐसी फिल्म बनाने की हिमाकत कभी नहीं करेंगे । वजह साफ है लोरिक-चंदा शायद वैसी कमाई नहीं कर पाएगी जैसी कमाई ‘हंस झन पगली फंस जाबे’ जैसी दोयम दर्जे की एक बंडल फिल्म से हो जाती है ।

विवेक सार्वा की मंदराजी के बाद छत्तीसगढ़ की अमर लोक-गाथा लोरिक-चंदा पर प्रेम चंद्राकर ने बेहद खूबसूरत फिल्म बनाई है, किंतु यह फिल्म ठीक-ठाक बिजनेस कर पाएगी इसे लेकर थोड़ा सशंय है ? (अगर यह फिल्म व्यावसायिक रुप से सफल होती है तो इसे प्रेम चंद्राकर और इसमें काम करने वालों कलाकारों का भाग्य ही माना जाना चाहिए ।)

दरअसल इस सशंय की एक बड़ी वजह यह है कि अब छत्तीसगढ़ में भी फिल्म को सफल बनाने के लिए पैतरों और हथकंड़ों का उपयोग होने लगा है । कई बार पैतरों और हथकंड़ों की आजमाइश सफल हो जाती है, मगर कई बार दर्शक झांसे में नहीं आता और फिल्म धूल चाटने लगती है ।

दर्शकों को शायद याद हो कि जब हंस झन पगली थियेटर में रिलीज हुई तब मल्टीफ्लेक्स में छत्तीसगढ़ी सिनेमा लगाए जाने को लेकर एक जबरदस्त आंदोलन हुआ था । फिल्म के जानकार मानते हैं कि अगर यह आंदोलन नहीं होता तो फिल्म को उतना लाभ नहीं मिलता जितना मिला । छत्तीसगढ़ में कुछ फिल्में सिर्फ इसलिए सफल रही क्योंकि वह तीज-त्योहार और और सरकारी अवकाश के दिनों में रिलीज हुई । कई फिल्मों की डूबती नैय्या भी इसलिए पार लग पाई क्योंकि उनका प्रमोशन जरूरत से ज्यादा था । जबकि कुछ फिल्में सलमान जैसी बॉड़ी दिखाने और हिरोइनों पर ज्वलनशील पदार्थ फेंकने की घटना के बाद भी सफल नहीं हो पाई. कुछ फिल्मों को लोगों ने इसलिए खारिज कर दिया क्योंकि उनका पोस्टर ही अपसंस्कृति का परिचायक था । पोस्टर में सुपर स्टार लिखा हुआ देखकर दर्शक थियेटर के भीतर गए मगर पर्दे पर कुमार गौरव को नाचता हुआ देखकर बाहर भी निकल आए ।

अब थोड़ी सी बात लोरिक चंदा को लेकर कर लेते हैं अन्यथा खुद को लीजेंड और सुपर स्टार के तौर पर प्रचारित करने वाले आत्ममुग्ध कलाकार शराब पीकर उल्टी करने लगेंगे ।

… तो भइया ऐसा है कि लोरिक-चंदा को थोड़ा धैर्य और प्रेम से देखने की जरूरत है । अगर इस फिल्म को देखने के पहले प्रेम साइमन के नाटक से गुजर जाए तो और भी अच्छा होगा । प्रेम चंद्राकर की इस फिल्म में नाटक और फिल्म दोनों का स्वाद मिलता है । अब से कुछ अर्सा पहले छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध लोक निर्देशक रामहृदय तिवारी ने लोरिक-चंदा के नाम से नाटक खेला था । तब यह नाटक बेहद मकबूल हुआ था. नाटक में लोरिक की भूमिका दीपक चंद्राकर और चंदा की भूमिका शैलजा क्षीरसागर ने निभाई थीं । तब यह नाटक इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि दूरदर्शन वालों ने जस का तस इसका प्रसारण कर दिया था । बाद में सुंदरानी बंधुओं ने भी लोरिक चंदा को लेकर एक वीडियो बनाया, मगर वीडियो ठीक-ठाक प्रभाव नहीं छोड़ पाया ।

सच तो यह है कि लोक जीवन में रचने-बसने वाली गाथाएं सिर्फ इसलिए जिंदा नहीं रहती कि वे आश्चर्य लोक का निर्माण करती है बल्कि वह लोगों के दिलों में इसलिए भी धड़कती है क्योंकि उनमें प्रेरणा देने वाले अनिवार्य तत्व के तौर पर प्रेम मौजूद रहता है । छत्तीसगढ़ की चर्चित लोकगाथा लोरिक को हम मैथिल, मिर्जापुरी, भोजपुरी और हैदराबादी में भी देख सकते हैं । हर जगह कहानी थोड़ी-थोड़ी अलग हो जाती है । कहानी के अलग हो जाने के बावजूद नायक लोरिक प्रेम की जिजीविषा और खूबसूरती को बचाए रखने के लिए संघर्ष करता है ।

लोक गाथाओं में कोई एक लेखक मूल नहीं होता है इसलिए पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि लोरिक-चंदा का मूल लेखक कौन है । चूंकि छत्तीसगढ़ में इसे सबसे पहले नाटककार प्रेम साइमन ने करीने से लिखा और खेला है तो उनके महत्वपूर्ण काम को स्वीकार करने में कोई गुरेज भी नहीं होना चाहिए. छत्तीसगढ़ में कंचादूर के रामाधुर साहू अब भी चनैनी के नाम से लोरिक-चंदा को खेलते हैं । उनके नाटक की कहानी फिल्म की कहानी से अलग है । मुख्य रुप से लोरिक-चंदा की कहानी मानवीय प्राणों की प्यास, प्यार की तलाश और अतृप्त आकांक्षा की कहानी है । इस कहानी में मेल-मिलाप और विछोह बेहद सात्विक रुप में मौजूद है । ( टुरी आइसक्रीम खाकर फरार हो गई जैसे गाने पर कूल्हे मटकाने वाली पीढ़ी शायद ही कभी जान पाए कि सात्विकता क्या होती है ? ) प्रेम… का ब्रेकअप मोबाइल पर हट… तेरी ऐसी की तैसी लिख देने भर से नहीं होता है । प्रेम सशंय और कुंहासों से भरा होता है । अक्सर प्रेम में वह सब भी सुन लिया जाता है जो कभी कहा नहीं जाता । लोरिक और चंदा मिलते तो हैं, लेकिन वे मिलकर भी नहीं मिलते । कहानी के अंत में वे डूबकर अपनी जान दे देते हैं, लेकिन दूसरों की जान का हिस्सा बन जाते हैं.लोरिक और चंदा की कहानी से छत्तीसगढ़ का हर मर्मज्ञ वाकिफ है । जगह- जगह किसी न किसी रुप में यह गाथा सुनने को मिल जाती है । आरंग के एक गांव रीवा के पास तो बकायदा लोरिक गढ़ भी बना हुआ है ।

प्रेम चंद्राकर की लोरिक-चंदा पूरे प्रभावी ढंग से इन्हीं सब बातों को कहती है, लेकिन यह सब आपको तब अच्छा लग पाएगा जब आप दो-ढ़ाई घंटे के लिए अपने मोबाइल से तलाक ले पाएंगे । मतलब मोबाइल बंद करके फिल्म का आनंद उठाए. यह फिल्म दर्शकों से थोड़ा धैर्य और इत्मीनान की अपेक्षा करती है । लोरिक की भूमिका में अभिनेता गुलशन साहू और चंदा की भूमिका में कुंती मढ़रिया का काम बेहतर है । आकाश सोनी के हिस्से में बेहद छोटी सी भूमिका आई है, लेकिन सर्वाधिक तालियां इस कलाकार के हिस्से चली जाती है । उसने दिल जीत लिया । राजा के रुप संजय बतरा की केवल आवाज प्रभावी है । उनके अभिनय में टीवी सीरियलों की छाप साफ तौर पर दिखाई देती है । इसके बावजूद वे फिल्म की गति को कमजोर नहीं होने देते ।

फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष उसका गीत और संगीत है. आप इस फिल्म के संगीत में गुंदम बाजा भी सुन सकते हैं. मांदर, ढोलक- तबला, खंजेरी और चटका भी. संगीत आपको बांधे रखता है । लोक संगीत दूसरी दुनिया में ले जाता है.फिल्म का हर गीत मधुर और जानदार है । फिल्म की अधिकांश शूटिंग गरियाबंद के पास बारूका और पांडुका इलाके के पठार में हुई है । कैमरामैन ने इस इलाके के कई खूबसूरत दृश्यों को कैद करके शानदार वातावरण रचा है । फिल्म को देखते हुए राजश्री प्रोडक्शन के बैनर तले बनने वाली कई साफ-सुथरी फिल्मों की याद भी आती है ।

अगर आप राजा- फाजा भइया, लव दीवाना, सॉरी लवयू-फव यू, तोर-मोर लव जैसी बेमतलब की फिल्म से उब गए हैं तो आपको लोरिक-चंदा जैसी क्लासिक मूवी अवश्य देखनी चाहिए । अगर आप शुद्ध छत्तीसगढ़ी भाषा का आंनद हासिल करना चाहते हैं तो भी इस फिल्म को देख सकते हैं ।

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